Poem 1: कबीर (1398-1518)
कबीर का जन्म 1398 में काशी में हुआ माना जाता है। गुरु रामानंद के शिष्य कबीर ने 120 वर्ष की आयु पाई। जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मगहर में बिताए और वहीं चिरनिद्रा में लीन हो गए।
कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ था जब राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक क्रांतियाँ अपने चरम पर थीं। कबीर क्रोतदर्शी कवि थे। उनकी कविता में गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है। उनकी कविता सहज ही मर्म को छू लेती है। एक ओर धर्म के बाह्याडंबरों पर उन्होंने गहरी और तीखी चोट की है तो दूसरी ओर आत्मा-परमात्मा के विरह-मिलन के भावपूर्ण गीत गाए हैं। कबीर शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को अधिक महत्त्व देते थे। उनका विश्वास सत्संग में था और वे मानते थे कि ईश्वर एक है, वह निर्विकार है, अरूप है।
कबीर की भाषा पूर्वी जनपद की भाषा थी। उन्होंने जनचेतना और जनभावनाओं को अपने सबद और साखियों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया।
‘साखी’ शब्द ‘साक्षी’ शब्द का ही तद्भव रूप है। साक्षी शब्द साक्ष्य से बना है जिसका अर्थ होता है-प्रत्यक्ष ज्ञान। यह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु शिष्य को प्रदान करता है। संत संप्रदाय में अनुभव ज्ञान की ही महत्ता है, शास्त्रीय ज्ञान की नहीं। कबीर का अनुभव क्षेत्र विस्तृत था। कबीर जगह-जगह भ्रमण कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे। अतः उनके द्वारा रचित साखियों में अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी और पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसी कारण उनकी भाषा को ‘पचमेल खिचड़ी’ कहा जाता है। कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भी कहा जाता है।
‘साखी’ वस्तुतः दोहा छंद ही है जिसका लक्षण है 13 और 11 के विश्राम से 24 मात्रा। प्रस्तुत पाठ की साखियाँ प्रमाण हैं कि सत्य की साक्षी देता हुआ ही गुरु शिष्य को जीवन के तत्वज्ञान की शिक्षा देता है। यह शिक्षा जितनी प्रभावपूर्ण होती है उतनी ही याद रह जाने योग्य भी। ाने योग्य
Poem lines
साखी
ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ। अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ।।
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै ऐसें घटि घटि राँम है, दुनियाँ बन देखै माँहि । नाँहि ।।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि। सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ।।
सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै। दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै।।
बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागे राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा कोइ। होइ ।।
निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ। बिन साबण पाँणों बिना, निरमल करै सुभाइ ।।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पडित भया न कोइ। ऐकै अषिर पीव का, पढ़ें सु पडित होइ।।
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि। अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
6 ‘ऐकै अधिर पीव का, पढ़े स पंडित होइ’ – इस पंक्ति द्वारा कवि क्या कहना चाहता है?
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-
भाषा अध्ययन
योग्यता विस्तार
परियोजना कार्य नगौंह।
शब्दार्थ और टिप्पणियाँ
बाँणी – बोली
आपा – अहं (अहंकार)
कुंडलि – नाभि
घटि घटि – घट-घट में / कण-कण में
भुवंगम – भुजंग / साँप
बौरा – पागल
नेड़ा – निकट
आँगणि – साबण
आँगन – अधिर
साबुन – पीव
अक्षर -प्रिय
मुराड़ा – जलती हुई लकड़ी
(1503-1546)
मीराबाई का जन्म जोधपुर के चोकड़ी (कुड़की) गाँव में 1503 में हुआ माना जाता है। 13 वर्ष की उम्र में मेवाड़ के महाराणा सांगा के कुँवर भोजराज से उनका विवाह हुआ। उनका जीवन दुखों की छाया में ही बीता। बाल्यावस्था में ही माँ का देहांत हो गया था। विवाह के कुछ ही साल बाद पहले पति, फिर पिता और एक युद्ध के दौरान श्वसुर का भी देहांत हो गया। भौतिक जीवन से निराश मीरा ने घर-परिवार त्याग दिया और वृंदावन में डेरा डाल पूरी तरह गिरधर गोपाल कृष्ण के प्रति समर्पित हो गईं।
मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की आध्यात्मिक प्रेरणा ने जिन कवियों को जन्म दिया उनमें मीराबाई का विशिष्ट स्थान है। इनके पद पूरे उत्तर भारत सहित गुजरात, बिहार और बंगाल तक प्रचलित हैं। मीरा हिंदी और गुजराती दोनों की कवयित्री मानी जाती हैं।
संत रैदास की शिष्या मीरा की कुल सात-आठ कृतियाँ ही उपलब्ध हैं। मीरा की भक्ति दैन्य और माधुर्यभाव की है। इन पर योगियों, संतों और वैष्णव भक्तों का सम्मिलित प्रभाव पड़ा है। मीरा के पदों की भाषा में राजस्थानी, ब्रज और गुजराती का मिश्रण पाया जाता है। वहीं पंजाबी, खड़ी बोली और पूर्वी के प्रयोग भी मिल जाते हैं।
कहते हैं पारिवारिक संतापों से मुक्ति पाने के लिए मीरा घर-द्वार छोड़कर वृंदावन में जा बसी थीं और कृष्णमय हो गई थीं। इनकी रचनाओं में इनके आराध्य कहीं निर्गुण निराकार ब्रह्म, कहीं सगुण साकार गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण और कहीं निर्मोही परदेशी जोगी के रूप में संकल्पित किए गए हैं। वे गिरधर गोपाल के अनन्य और एकनिष्ठ प्रेम से अभिभूत हो उठी थीं।
प्रस्तुत पाठ में संकलित दोनों पद मीरा के इन्हीं आराध्य को संबोधित हैं। मीरा अपने आराध्य से मनुहार भी करती हैं, लाड़ भी लड़ाती हैं तो अवसर आने पर उलाहना देने से भी नहीं चूकतीं। उनकी क्षमताओं का गुणगान, स्मरण करती हैं तो उन्हें उनके कर्तव्य याद दिलाने में भी देर नहीं लगातीं।
पद
Poem lines:
(1)
हरि आप हरो जन री भीर। द्रोपदी री लाज राखी, आप बढ़ायो चीर। भगत कारण रूप नरहरि, धर्यो आप सरीर। बूढ़तो गजराज राख्यो, काटी कुण्जर पीर। दासी मीराँ लाल गिरधर, हरो म्हारी भीर।। ishe
(2)
स्याम म्हाने चाकर राखो जी, गिरधारी लाला म्हाँने चाकर राखोजी। चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसण पास्यूँ। बिन्दरावन री कुंज गली में, गोविन्द लीला गास्यूँ। चाकरी में दरसण पास्यूँ, सुमरण पास्यूँ खरची। भाव भगती जागीरी पास्यूँ, तीनूं बाताँ सरसी। मोर मुगट पीताम्बर सौहे, गल वैजन्ती माला। बिन्दरावन में धेनु चरावे, मोहन मुरली वाला। ऊँचा ऊँचा महल बणावं बिच बिच राखूँ बारी। साँवरिया रा दरसण पास्यूँ, पहर कुसुम्बी साड़ी। आधी रात प्रभु दरसण, दीज्यो जमनाजी रे तीरां। मीराँ रा प्रभु गिरधर नागर, हिवड़ो घणो अधीराँ।।
संदर्भ : मीराँ ग्रंथावली-2, कल्याण सिंह शेखावत
प्रश्न-अभ्यास
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
( ख) निम्नलिखित पंक्तियों का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
द्रोपदी री लाज राखी, आप बढायो चीर।
भगत कारण रूप नरहरि, धर्यो आप सरीर।
भाषा अध्ययन
उदाहरण-भोर – पीड़ा / कष्ट/दुख; री की
चीर – सूढ़ता
धर्यो – लगास्यूँ
घणा – सरसो
कुण्जर – विन्दरावन
रहस्यूँ – हिवडा
राखो – कुसुम्बी
योग्यता विस्तार
परियोजना
शब्दार्थ और टिप्पणियाँ
बढ़ायो – गजराज
कुंजर – बढ़ाना
ऐरावत – पाना
विविध रूप – – हाथी
पास्यूँ – लीला
सुमरण – जागीरी
पीतांबर – वैजंती
तीरां – अधीराँ (अधीर)
द्रोपदी री लाज राखी
काटी कुंजर पीर
याद करना / स्मरण
– जागीर / साम्राज्य
पीला वस्त्र
एक फूल
किनारा
व्याकुल होना
दुर्योधन द्वारा द्रोपदी का
का चीरहरण
पर। श्रीकृष्ण ने चीर को बढ़ाते-बढ़ाते
इतना बढ़ा दिया कि दुःशासन का हाथ थक गया
कुंजर का कष्ट दूर करने के लिए मगरमच्छ को मारा
(1886-1964)
1886 में झाँसी के करीब चिरगाँव में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त अपने जीवनकाल में ही राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात हुए। इनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। संस्कृत, बांग्ला, मराठी और अंग्रेजी पर इनका समान अधिकार था।
गुप्त जी रामभक्त कवि हैं। राम का कीर्तिगान इनकी चिरसंचित अभिलाषा रही। इन्होंने भारतीय जीवन को समग्रता में समझने और प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया।
गुप्त जी की कविता की भाषा विशुद्ध खड़ी बोली है। भाषा पर संस्कृत का प्रभाव है। काव्य की कथावस्तु भारतीय इतिहास के ऐसे अंशों से ली गई है जो भारत के अतीत का स्वर्ण चित्र पाठक के सामने उपस्थित करते हैं।
गुप्त जी की प्रमुख कृतियाँ हैं-साकेत, यशोधरा, जयद्रथ वध।
गुप्त जी के पिता सेठ रामचरण दास भी कवि थे और इनके छोटे भाई सियारामशरण गुप्त भी प्रसिद्ध कवि हुए।
पाठ प्रवेश
प्रकृति के अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य में चेतना शक्ति की प्रबलता होती ही है। वह अपने ही नहीं औरों के हिताहित का भी खयाल रखने में, औरों के लिए भी कुछ कर सकने में समर्थ होता है। पशु चरागाह में जाते हैं, अपने-अपने हिस्से का चर आते हैं, पर मनुष्य ऐसा नहीं करता। वह जो कमाता है, जो भी कुछ उत्पादित करता है, वह औरों के लिए भी करता है, औरों के सहयोग से करता है।
प्रस्तुत पाठ का कवि अपनों के लिए जीने-मरने वालों को मनुष्य तो मानता है लेकिन यह मानने को तैयार नहीं है कि ऐसे मनुष्यों में मनुष्यता के पूरे-पूरे लक्षण भी हैं। वह तो उन मनुष्यों को ही महान मानेगा जिनमें अपने और अपनों के हित चिंतन से कहीं पहले और सर्वोपरि दूसरों का हित चिंतन हो। उसमें वे गुण हों जिनके कारण कोई मनुष्य इस मृत्युलोक से गमन कर जाने के बावजूद युगों तक औरों की यादों में भी बना रह पाता है। उसकी मृत्यु भी सुमृत्यु हो जाती है। आखिर क्या हैं वे
Poem lines
मनुष्यता
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी, मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए, मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती, उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती; को समस्त सृष्टि पूजती।
तथा उसी उदार अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी, तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया, सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे? वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही; वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा, विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा? अहा! वही उदार है परोपकार जो करे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में, सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में। अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं, दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े, समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े। परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी। रहो न यों कि एक से न काम और का सरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
‘मनुष्य मात्र बंधु है’ यही बड़ा विवेक है, पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं, परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं। अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। not
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए, विपत्ति, विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी, अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
प्रश्न-अभ्यास
मनुष्यता / 17
(क) निम्मलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
8 ‘मनुष्यता’ कविता के माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाहता है?
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ है,
दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
योग्यता विस्तार
प्राप्त कीजिए।
परियोजना कार्य
शब्दार्थ और टिप्पणियाँ
मर्त्य
पशु-प्रवृत्ति
उदार
कृतार्थ
कीर्ति
कूजती
क्षुधार्त
रतिदेव
करस्थ
दधीचि
परार्थ
अस्थिजाल
उशीनर
क्षितीश
स्वमांस
कर्ण
महाविभूति
वशीकृता
विरुद्धवाद बुद्ध का
दया-प्रवाह में बहा
मरणशील
पशु जैसा स्वभाव
दानशील / सहृदय
आभारी / धन्य
यश
मधुर ध्वनि करती
भूख से व्याकुल
एक परम दानी राजा
RT
हुआ हाथ में पकड़ा हुआ / लिया
एक प्रसिद्ध ऋषि जिनकी हड्डियों से इंद्र से इंद्र का वज्र बना था rep
जो दूसरों के लिए हो
हड्डियों का समूह
गंधार देश का राजा
राजा
अपने शरीर का मांस
दान देने के लिए प्रसिद्ध कुती पुत्र
बड़ी भारी पूँजी
वश में की हुई
बुद्ध ने करुणावश उस साधुय की पारंपरिक मान्यताओं का विरोध किया था
जो गर्व से अंधा हो
धन-संपत्ति
एक-दूसरे का सहारा
मदांध
वित्त
परस्परावलंब
अमर्त्य-अंक
देवता की गोद
अपक
स्वयंभू
कलंक-रहित
परमात्मा / स्वयं उत्पन्न होने वाला
अंतरैक्य
आत्मा की एकता / अंत:करण की एकता
प्रमाणभूत
साक्षी
अभीष्ट
इच्छित
अतर्क
तर्क से परे
सतर्क पंथ
सावधान यात्री
(1900-1977)
20 मई 1900 को उत्तराखंड के कौसानी-अलमोड़ा में जन्मे सुमित्रानंदन पंत ने बचपन से ही कविता लिखना शुरू कर दिया था। सात साल की उम्र में स्कूल में काव्य पाठ के लिए पुरस्कृत हुए। 1915 में स्थायी रूप से साहित्य सृजन शुरू किया और छायावाद के प्रमुख स्तंभ के रूप में जाने गए।
पंत जी की आरंभिक कविताओं में प्रकृति प्रेम और रहस्यवाद झलकता है। इसके बाद वे मार्क्स और महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित हुए। इनकी बाद की कविताओं में अरविंद दर्शन का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है।
जीविका के क्षेत्र में पंत जी उदयशंकर संस्कृति केंद्र से जुड़े। आकाशवाणी के परामर्शदाता रहे। लोकायतन सांस्कृतिक संस्था की स्थापना की। 1961 में भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषण सम्मान से अलंकृत किया। हिंदी के पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता हुए।
पंत जी को कला और बूढ़ा चाँद कविता संग्रह पर 1960 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार, 1969 में चिदंबरा संग्रह पर ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उनका निधन 28 दिसंबर 1977 को हुआ। इनकी अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं-वीणा, पल्लव, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णकिरण और लोकायतन।
भला कौन होगा जिसका मन पहाड़ों पर जाने को न मचलता हो। जिन्हें सुदूर हिमालय तक जाने का अवसर नहीं मिलता वे भी अपने आसपास के पर्वत प्रदेश में जाने का अवसर शायद ही हाथ से जाने देते हों। ऐसे में कोई कवि और उसकी कविता अगर कक्षा में बैठे-बैठे ही वह अनुभूति दे जाए जैसे वह अभी-अभी पर्वतीय अंचल में विचरण करके लौटा हो, तो!
प्रस्तुत कविता ऐसे ही रोमांच और प्रकृति के सौंदर्य को अपनी आँखों निरखने की अनुभूति देती है। यही नहीं, सुमित्रानंदन पंत की अधिकांश कविताएँ पढ़ते हुए यही अनुभूति होती है कि मानो हमारे आसपास की सभी दीवारें कहीं विलीन हो गई हों। हम किसी ऐसे रम्य स्थल पर आ पहुँचे हैं जहाँ पहाड़ों की अपार श्रृंखला है, आसपास झरने बह रहे हैं और सब कुछ भूलकर हम उसी में लीन रहना चाहते हैं।
महाप्राण निराला ने भी कहा था पंत जी में सबसे जबरदस्त कौशल जो है, वह है ‘शेली’ (shelley) की तरह अपने विषय को अनेक उपमाओं से सँवारकर मधुर से मधुर और कोमल से कोमल कर देना।
Poem lines
पर्वत प्रदेश में पावस
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकार पर्वत अपार अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़, अवलोक रहा है बार-बार नीचे जल में निज महाकार,
-जिसके चरणों में पला ताल दर्पण-सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गावडे झर-झर मद में नस-नस उत्तेजित कर मोती की लड़ियों से सुंदर झरते हैं झाग भरे निर्झर।
गिरिवर के उर से उठ उठ कर उच्चाकांक्षाओं से तरुवर हैं झाँक रहे नीरव नभ पर अनिमेष, अटल, कुछ चितापर।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर फड़का अपार पारद के पर!
पाठांतर : वारिद
पर्वत प्रदेश में पावस/23
रव-शेष रह गए हैं निर्झर! है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल! उठ रहा धुआँ, जल गया ताल! -यों जलद-यान में विचर-विचर था इंद्र खेलता इंद्रजाल।
प्रश्न-अभ्यास
ished
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-
2 -यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल।
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चितापर।
कविता का सौंदर्य
(क) अनेक शब्दों की आवृत्ति पर।
(ख) शब्दों की चित्रमयी भाषा पर।
(ग) कविता की संगीतात्मकता पर।
योग्यता विस्तार
परियोजना कार्य
विषयक शब्द का प्रयोग करते हुए एक कविता लिखने का प्रयास कीजिए।
शब्दार्थ और टिप्पणियाँ
पावस
प्रकृति-वेश
मेखलाकार
सहस्र
वृग-सुमन
अवलोक
महाकार दर्पण
मद
झाग
उर
no
वर्षा ऋतु
प्रकृति का रूप
करघनों के आकार को पहाड़ की बाल
पुष्प रूपी आँखें
देखना
विशाल आकार
आईना
मस्ती
फेन
14
हृदय
ऊँचा उठने की कामना
पेड़
उच्चाकांक्षा
तरुवर
नीरव नभ
अनिमेष
शांत आकाश
एकटक
चिंतापर
चिंतित / चिंता में डूबा हुआ
पहाड़
भूधर
पारद के पर
पारे के समान धवल एवं चमकीले पंख
रव-शेष
सभय
शाल
ताल
केवल आवाज का रह जाना। चारों ओर शांत, निस्तब्ध वातावरण में केवल पानी
के गिरने की आवाज का रह जाना
भय के साथ
एक वृक्ष का नाम
तालाब
जलद-यान
बादल रूपी विमान
विचर
घूमना
इंद्रजाल
जादूगरी
5th वीरेन डंगवाल
(1947-2015)
5 अगस्त 1947 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के कीर्तिनगर में जन्मे वीरेन डंगवाल ने आरंभिक शिक्षा नैनीताल में और उच्च शिक्षा इलाहाबाद में पाई। पेशे से प्राध्यापक डंगवाल पत्रकारिता से भी जुड़े हुए हैं।
समाज के साधारण जन और हाशिए पर स्थित जीवन के विलक्षण ब्योरे और दृश्य वीरेन की कविताओं की विशिष्टता मानी जाती है। इन्होंने ऐसी बहुत-सी चीजों और जीव-जंतुओं को अपनी कविता का आधार बनाया है जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा किए रहते हैं।
वीरेन के अब तक दो कविता संग्रह इसी दुनिया में और दुष्चक्र में स्रष्टा प्रकाशित हो चुके हैं। पहले संग्रह पर प्रतिष्ठित श्रीकांत वर्मा पुरस्कार और दूसरे पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार के अलावा इन्हें अन्य कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। वीरेन डंगवाल ने कई महत्त्वपूर्ण कवियों की अन्य भाषाओं में लिखी गई कविताओं का हिंदी में अनुवाद भी किया है। 28 सितंबर 2015 को इनका देहावसान हुआ।
पाठ प्रवेश
प्रतीक और धरोहर दो किस्म की हुआ करती हैं। एक वे जिन्हें देखकर या जिनके बारे में जानकर हमें अपने देश और समाज की प्राचीन उपलब्धियों का भान होता है और दूसरी वे जो हमें बताती हैं कि हमारे पूर्वजों से कब, क्या चूक हुई थी, जिसके परिणामस्वरूप देश की कई पीढ़ियों को दारुण दुख और दमन झेलना पड़ा था।
प्रस्तुत पाठ में ऐसे ही दो प्रतीकों का चित्रण है। पाठ हमें याद दिलाता है कि कभी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने के इरादे से आई थी। भारत ने उसका स्वागत ही किया था, लेकिन करते-कराते वह हमारी शासक बन बैठी। उसने कुछ बाग बनवाए तो कुछ तोपें भी तैयार कीं। उन तोपों ने इस देश को फिर से आजाद कराने का सपना साकार करने निकले जाँबाजों को मौत के घाट उतारा। पर एक दिन ऐसा भी आया जब हमारे पूर्वजों ने उस सत्ता को उखाड़ फेंका। तोप को निस्तेज कर दिया। फिर भी हमें इन प्रतीकों के बहाने यह याद रखना होगा कि भविष्य में कोई और ऐसी कंपनी यहाँ पाँव न जमाने पाए जिसके इरादे नेक न हों और यहाँ फिर वही तांडव मचे जिसके घाव अभी तक हमारे दिलों में हरे हैं। भले ही अंत में उनकी तोप भी उसी काम क्यों न आए जिस काम में इस पाठ की तोप आ रही है…
तोप
कंपनी बाग के मुहाने पर धर रखी गई है यह 1857 की तोप इसकी होती है बड़ी सम्हाल, विरासत में मिले कंपनी बाग की तरह साल में चमकाई जाती है दो बार।
सुबह-शाम कंपनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी उन्हें बताती है यह तोप कि मैं बड़ी जबर उड़ा दिए थे मैंने अच्छे-अच्छे सूरमाओं के धज्जे
अब तो बहरहाल छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फ़ारिग हो तो उसके ऊपर बैठकर चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं खास कर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप एक दिन तो होना ही है उसका मुँह बंद।
प्रश्न-अभ्यास
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-
. अब तो बहरहाल 1
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फ़ारिग हो तो उसके ऊपर बैठकर चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप।
भाषा अध्ययन
योग्यता विस्तार
कविता लिखने का प्रयास कीजिए और इसे समझिए।
परियोजना कार्य
प्रश्न-अभ्यास
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-
. अब तो बहरहाल 1
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फ़ारिग हो तो उसके ऊपर बैठकर चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप।
भाषा अध्ययन
योग्यता विस्तार
कविता लिखने का प्रयास कीजिए और इसे समझिए।
परियोजना कार्य
शब्दार्थ और टिप्पणियाँ
मुहाने
प्रवेश द्वार पर
घर रखी
रखी गई
सम्हाल
देखभाल
विरासत
पूर्व पीढ़ियों से प्राप्त वस्तुएँ
सैलानी
दर्शनीय स्थलों पर आने वाले यात्री
सूरमा( ओं) वीर
चिथड़े-चिथड़े करना
धज्जे
फ़ारिग मुक्त / खाली
कंपनी बाग गुलाम भारत में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ द्वारा जगह-जगह पर बनवाए गए बाग-बगीचों में से कानपुर में बनवाया गया एक बाग
6th – कैफ़ी आज़मी (1919-2002)
अतहर हुसैन रिजवी का जन्म 19 जनवरी 1919 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में मजमां गाँव में हुआ। अदब की दुनिया में आगे चलकर वे कैफ़ी आजमी नाम से मशहूर हुए। कैफ़ी आजमी की गणना प्रगतिशील उर्दू कवियों की पहली पंक्ति में की जाती है।
कैफ़ी की कविताओं में एक ओर सामाजिक और राजनैतिक जागरूकता का समावेश है तो दूसरी ओर हृदय की कोमलता भी है। अपनी युवावस्था में मुशायरों में वाह-वाही पाने वाले कैफ़ी आजमी ने फ़िल्मों के लिए सैकड़ों बेहतरीन गीत भी लिखे हैं।
10 मई 2002 को इस दुनिया से रुखसत हुए कैफ़ी के पाँच कविता संग्रह झंकार, आखिर-ए-शब, आवारा सजदे, सरमाया और फ़िल्मी गीतों का संग्रह मेरी आवाज सुनो प्रकाशित हुए। अपने रचनाकर्म के लिए काफ़ी को साहित्य अकादेमी पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से नवाजा गया। काफ़ी कलाकारों के परिवार से थे। इनके तीनों बड़े भाई भी शायर थे। पत्नी शौकत आजमी, बेटी शबाना आजमी मशहूर अभिनेत्रियाँ हैं।
पाठ प्रवेश
जिंदगी प्राणीमात्र को प्रिय होती है। कोई भी इसे यूँ ही खोना नहीं चाहता। असाध्य रोगी तक जीवन की कामना करता है। जीवन की रक्षा, सुरक्षा और उसे जिलाए रखने के लिए प्रकृति ने न केवल तमाम साधन हो उपलब्ध कराए हैं, सभी जीव-जंतुओं में उसे बनाए, बचाए रखने की भावना भी पिरोई है। इसीलिए शातिप्रिय जीव भी अपने प्राणों पर संकट आया जान उसकी रक्षा हेतु मुकाबले के लिए तत्पर हो जाते हैं।
लेकिन इससे ठीक विपरीत होता है सैनिक का जीवन, जो अपने नहीं, जब औरों के जीवन पर, उनकी आजादी पर आ बनती है, तब मुकाबले के लिए अपना सीना तान कर खड़ा हो जाता है। यह जानते हुए भी कि उस मुकाबले में औरों की जिंदगी और आजादी भले ही बची रहे, उसकी अपनी मौत की संभावना सबसे अधिक होती है।
प्रस्तुत पाठ जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म ‘हकीकत’ के लिए लिखा गया था, ऐसे ही सैनिकों के हृदय की आवाज बयान करता है, जिन्हें अपने किए-धरे पर नाज है। इसी के साथ इन्हें अपने देशवासियों से कुछ अपेक्षाएँ भी हैं। चूंकि जिनसे उन्हें वे अपेक्षाएँ हैं वे देशवासी और कोई नहीं, हम और आप ही हैं, इसलिए आइए, इसे पढ़कर अपने आप से पूछें कि हम उनकी अपेक्षाएँ पूरी कर रहे हैं या नहीं?
कर चले हम फ़िदा
कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो साँस थमती गई, नब्ज़ जमती गई फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया कट गए सर हमारे तो कुछ गम नहीं सर हिमालय का हमने न झुकने दिया
मरते-मरते रहा बाँकपन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
जिंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर जान देने की रुत रोज आती नहीं हुस्न और इश्क दोनों को रुस्वा करे वो जवानी जो खूँ में नहाती नहीं
आज धरती बनी है दुलहन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
राह कुर्बानियों की न वीरान हो तुम सजाते ही रहना नए काफ़िले फ़तह का जश्न इस जश्न के बाद है जिंदगी मौत से मिल रही है गले
बाँध लो अपने सर से कफ़न साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
खींच दो अपने खूँ से जमीं पर लकीर इस तरफ़ आने पाए न रावन कोई तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे छू न पाए सोता राम भो तुम, तुम्हीं अब तुम्हारे हवाले का दामन कोई लक्ष्मण साथियो वतन साथियो।
प्रश्न-अभ्यास
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-
फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया
इस तरफ़ आने पाए, न रावन कोई
राम भी तुम, तुम्ही लक्ष्मण साथियो
भाषा अध्ययन
I
प्रयोग कीजिए।
कट गए सर, नब्ठ जमती गई, जान देने की रुत, हाथ उठने लगे
योग्यता विस्तार
परियोजना कार्य
शब्दार्थ और टिप्पणियाँ
फ़िदा
हवाले
रुत
हुस्न
न्योछावर
सौंपना
मौसम
सुंदरता
बदनाम
खून
be rep
यात्रियों का समूह
जीत
रुस्वा
काफ़िले
फतह
जश्न
खुशी मनाना
नब्ज्ञ
नाड़ी
कुर्बानियाँ
बलिदान
जमीं
जमीन
लकीर
रेखा
7th – रवींद्रनाथ ठाकुर (1861-1941)
6 मई 1861 को बंगाल के एक संपन्न परिवार में जन्मे रवींद्रनाथ ठाकुर नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय हैं। इनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। छोटी उम्र में ही स्वाध्याय से अनेक विषयों का ज्ञान अर्जित कर लिया। बैरिस्ट्री पढ़ने के लिए विदेश भेजे गए लेकिन बिना परीक्षा दिए ही लौट आए।
रवींद्रनाथ की रचनाओं में लोक-संस्कृति का स्वर प्रमुख रूप से मुखरित होता है। प्रकृति से इन्हें गहरा लगाव था। इन्होंने लगभग एक हजार कविताएँ और दो हजार गीत लिखे हैं। चित्रकला, संगीत और भावनृत्य के प्रति इनके विशेष अनुराग के कारण रवींद्र संगीत नाम की एक अलग धारा का ही सूत्रपात हो गया। इन्होंने शांति निकेतन नाम की एक शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्था की स्थापना की। यह अपनी तरह का अनूठा संस्थान माना जाता है।
अपनी काव्य कृति गीतांजलि के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए रवींद्रनाथ ठाकुर की अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं-नैवैद्य, पूरवी, बलाका, क्षणिका, चित्र और सांध्यगीत, काबुलीवाला और सैकड़ों अन्य कहानियाँ; उपन्यास-गोरा, घरे बाइरं और रवींद्र के निबंधा
तैरना चाहने वाले को पानी में कोई उत्तार तो सकता है, उसके आस-पास भी बना रह सकता है, मगर तैरना चाहने वाला जब स्वयं हाथ-पाँव चलाता है तभी तैराक बन पाता है। परीक्षा देने जाने वाला जाते समय बड़ों से आशीर्वाद की कामना करता ही है, बड़े आशीर्वाद देते भी हैं, लेकिन परीक्षा तो उसे स्वयं ही देनी होती है। इसी तरह जब दो पहलवान कुश्ती लड़ते हैं तब उनका उत्साह तो सभी दर्शक बढ़ाते हैं, इससे उनका मनोबल बढ़ता है, मगर कुश्ती तो उन्हें खुद ही लड़नी पड़ती है।
प्रस्तुत पाठ में कविगुरु मानते हैं कि प्रभु में सब कुछ संभव कर देने की सामर्थ्य है, फिर भी वह यह कतई नहीं चाहते कि वही सब कुछ कर दें। कवि कामना करता है कि किसी भी आपद-विपद में, किसी भी द्वंद्व में सफल होने के लिए संघर्ष वह स्वयं करे, प्रभु को कुछ न करना पड़े। फिर आखिर वह अपने प्रभु से चाहते क्या हैं?
रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रस्तुत कविता का बंगला से हिंदी में अनुवाद श्रद्धेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने किया है। द्विवेदी जी का हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में अपूर्व योगदान है। यह अनुवाद बताता है कि अनुवाद कैसे मूल रचना की ‘आत्मा’ को अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम है।
आत्मत्राण
विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं केवल इतना हो (करुणामय)
कभी न विपदा में पाऊँ भय।
दुःख-ताप से व्यथित चित्त को न दो सांत्वना नहीं सही पर इतना होवे (करुणामय) दुख को मैं कर सकूँ सदा जय।
कोई कहीं सहायक न मिले तो अपना बल पौरुष न हिले;
हानि उठानी पड़े जगत् में लाभ अगर वंचना रही तो भी मन में ना मानूँ क्षय।।
मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं बस इतना होवे (करुणायम) तरने की हो शक्ति अनामय।
मेरा भार अगर लघु करके न दो सांत्वना नहीं सही।
केवल इतना रखना अनुनय-
वहन कर सकूँ इसको निर्भय।
नत शिर होकर सुख के दिन में
तव मुख पहचानूँ छिन-छिन में।
दुःख-रात्रि में करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही उस दिन ऐसा हो करुणामय, तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय।।
अनुवाद : हजारीप्रसाद द्विवेदी
प्रश्न-अभ्यास
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
(ख) निम्नलिखित अंशों का भाव स्पष्ट कीजिए-
योग्यता विस्तार
कविता-पाठ कीजिए।
(क) महादेवी वर्मा-क्या पूजा क्या अर्चन है।
(ख) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला दलित जन पर करो करुणा।
(ग) इतनी शक्ति हमें देना दाता
मन का विश्वास कमजोर हो न
हम चले नेक रस्ते पर हम से
भूल कर भी कोई भूल हो न
इस प्रार्थना को ढूँढ़कर पूरा पढ़िए और समझिए कि दोनों प्रार्थनाओं में क्या समानता है? क्या आपको दोनों में कोई अंतर भी प्रतीत होता है? इस पर आपस में चर्चा कीजिए
परियोजना कार्य
शब्दार्थ और टिप्पणियाँ
विपदा
करुणामय
विपत्ति/मुसीबत
दूसरों पर दया करने वाला
कष्ट की पोड़ा
दुःख ताप
व्यथित
दुखी
सहायक
मददगार
पराक्रम
पौरुष
क्षय
त्राण
अनुविन
अनामय
सांत्वना
अनुनय
नत शिर
दुःख रात्रि
वंचना
निखिल
संशय
नाश
भय निवारण / बचाव / आश्रय
संपूर्ण
प्रतिदिन
रोग रहित / स्वस्थ
ढाँट्स बंधाना, तसल्ली देना
विनय
सिर झुकाकर
दुख से भरी रात
धोखा देना / छलना
संदेह